Lekhika Ranchi

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उपन्यास-गोदान-मुंशी प्रेमचंद


गोदान--मुंशी प्रेमचंद

मगर ज़मीन दोनों को एक-सी प्यारी थी। उसी पर तो उनकी इज़्ज़त और आबरू अवलिम्बत थी। जिसके पास ज़मीन नहीं, वह गृहस्थ नहीं, मजूर है। होरी ने कुछ जवाब न पाकर पूछा -- तो क्या कहती है?
धनिया ने आहत कंठ से कहा -- कहना क्या है। गौरी बरात लेकर आयँगे। एक जून खिला देना। सबेरे बेटी बिदा कर देना। दुनिया हँसेगी, हँस ले। भगवान् की यही इच्छा है, कि हमारी नाक कटे, मुँह में कालिख लगे तो हम क्या करेंगे।
सहसा नोहरी चुँदरी पहने सामने से जाती हुई दिखाई दी। होरी को देखते ही उसने ज़रा-सा घूँघट निकाल लिया। उससे समधी का नाता मानती थी। धनिया से उसका परिचय हो चुका था। उसने पुकारा -- आज किधर चली समधिन? आओ, बैठो।
नोहरी ने दिग्विजय कर लिया था और अब जनमत को अपने पक्ष में बटोर लेने का प्रयास कर रही थी। आकर खड़ी हो गयी।
धनिया ने उसे सिर से पाँव तक आलोचना की आँखों से देखकर कहा -- आज इधर कैसे भूल पड़ीं?
नोहरी ने कातर स्वर में कहा -- ऐसे ही तुम लोगों से मिलने चली आयी। बिटिया का ब्याह कब तक है?
धनिया स्निग्ध भाव से बोली -- भगवान् के अधीन है, जब हो जाय।
'मैंने तो सुना, इसी सहालग में होगा। तिथि ठीक हो गयी है? '
'हाँ, तिथि तो ठीक हो गयी है। '
'मुझे भी नेवता देना। '
'तुम्हारी तो लड़की है, नेवता कैसा? '
'दहेज का सामान तो मँगवा लिया होगा। ज़रा मैं भी देखूँ। '
धनिया असमंजस में पड़ी, क्या कहे। होरी ने उसे सँभाला -- अभी तो कोई सामान नहीं मँगवाया है, और सामान क्या करना है, कुस-कन्या तो देना है। नोहरी ने अविश्वास-भरी आँखों से देखा -- कुस-कन्या क्यों दोगे महतो, पहली बेटी है, दिल खोलकर करो। होरी हँसा; मानो कह रहा हो, तुम्हें चारों ओर हरा दिखायी देता होगा; यहाँ तो सूखा ही पड़ा हुआ है।
'रुपए-पैसे की तंगी है, क्या खोलकर करूँ। तुमसे कौन परदा है। '
'बेटा कमाता है, तुम कमाते हो; फिर भी रुपए-पैसे की तंगी? किसे विश्वास आयेगा। '
'बेटा ही लायक़ होता, तो फिर काहे को रोना था। चिट्ठी-पत्तर तक भेजता नहीं, रुपए क्या भेजेगा। यह दूसरा साल है, एक चिट्ठी नहीं। '
इतने में सोना बैलों के चारे के लिए हरियाली का एक गट्ठा सिर पर लिये, यौवन को अपने अंचल से चुराती, बालिका-सी सरल, आयी और गट्ठा वहीं पटककर अन्दर चलो गयी। नोहरी ने कहा -- लड़की तो ख़ूब सयानी हो गयी है।
धनिया बोली -- लड़की की बाढ़ रेंड़ की बाढ़ है। नहीं है अभी कै दिन की!
'वर तो ठीक हो गया है न? '
'हाँ, वर तो ठीक है। रुपए का बन्दोबस्त हो गया, तो इसी महीने में ब्याह कर देंगे। नोहरी दिल की ओछी थी। इधर उसने जो थोड़े-से रुपए जोड़े थे, वे उसके पेट में उछल रहे थे; अगर वह सोना के ब्याह के लिए कुछ रुपए दे दे, तो कितना यश मिलेगा। सारे गाँव में उसकी चर्चा हो जायगी। लोग चकित होकर कहेंगे, नोहरी ने इतने रुपए दे दिए। बड़ी देवी है। होरी और धनिया दोनों घर-घर उसका बखान करते फिरेंगे। गाँव में उसका मान-सम्मान कितना बढ़ जायगा। वह उँगली दिखानेवालों का मुँह सी देगी। फिर किसकी हिम्मत है, जो उस पर हँसे, या उस पर आवाज़ें कसे। अभी सारा गाँव उसका दुश्मन है। तब सारा गाँव उसका हितैषी हो जायगा। इस कल्पना से उसकी मुद्रा खिल गयी। '
थोड़े-बहुत से काम चलता हो, तो मुझसे लो; जब हाथ में रुपए आ जायँ तो दे देना। '
होरी और धनिया दोनों ही ने उसकी ओर देखा। नहीं, नोहरी दिल्लगी नहीं कर रही है। दोनों की आँखों में विस्मय था, कृतज्ञता थी, सन्देह था और लज्जा थी। नोहरी उतनी बुरी नहीं है, जितना लोग समझते हैं। नोहरी ने फिर कहा -- तुम्हारी और हमारी इज़्ज़त एक है। तुम्हारी हँसी हो तो क्या मेरी हँसी न होगी? कैसे भी हुआ हो, पर अब तो तुम हमारे समधी हो।
होरी ने सकुचाते हुए कहा -- तुम्हारे रुपए तो घर में ही हैं, जब काम पड़ेगा ले लगे। आदमी अपनों ही का भरोसा तो करता है; मगर ऊपर से इन्तज़ाम हो जाय, तो घर के रुपए क्यों छुए।
धनिया ने अनुमोदन किया -- हाँ, और क्या।
नोहरी ने अपनापन जताया -- जब घर में रुपए हैं, तो बाहरवालों के सामने हाथ क्यों फैलाओ। सूद भी देना पड़ेगा, उस पर इस्टाम लिखो, गवाही कराओ, दस्तूरी दो, खुसामद करो। हाँ, मेरे रुपए में छूत लगी हो, तो दूसरी बात है।
होरी ने सँभाला -- नहीं, नहीं नोहरी, जब घर में काम चल जायगा, तो बाहर क्यों हाथ फैलायेंगे; लेकिन आपसवाली बात है। खेती-बारी का भरोसा नहीं। तुम्हें जल्दी कोई काम पड़ा और हम रुपए न जुटा सके, तो तुम्हें भी बुरा लगेगा और हमारी जान भी संकट में पड़ेगी। इससे कहता था। नहीं, लड़की तो तुम्हारी है।
'मुझे अभी रुपए की ऐसी जल्दी नहीं है। '
'तो तुम्हीं से लेंगे। कन्यादान का फल भी क्यों बाहर जाय। '
'कितने रुपए चाहिए? '
'तुम कितने दे सकोगी? '
'सौ में काम चल जायगा? '
होरी को लालच आया। भगवान् ने छप्पर फाड़कर रुपए दिये हैं, तो जितना ले सके, उतना क्यों न ले!
'सौ में भी चल जायगा। पाँच सौ में भी चल जायगा। जैसा हौसला हो। '
'मेरे पास कुल दो सौ रुपए हैं, वह मैं दे दूँगी। '
तो इतने में बड़ी खुसफेली से काम चल जायगा। अनाज घर में है; मगर ठकुराइन, आज तुमसे कहता हूँ, मैं तुम्हें ऐसी लच्छमी न समझता था। इस ज़माने में कौन किसकी मदद करता है, और किसके पास है। तुमने मुझे डूबते से बचा लिया। '
दिया-बत्ती का समय आ गया था। ठंडक पड़ने लगी थी। ज़मीन ने नीली चादर ओढ़ ली थी। धनिया अन्दर जाकर अँगीठी लायी। सब तापने लगे। पुआल के प्रकाश में छबीली, रँगीली, कुलटा नोहरी उनकी सामने वरदान-सी बैठी थी। इस समय उसकी उन आँखों में कितनी सहृदयता थी; कपोलों पर कितनी लज्जा, ओठों पर कितनी सत्प्रेरणा! कुछ देर तक इधर-उधर की बातें करके नोहरी उठ खड़ी हुई और यह कहती हुई घर चली -- अब देर हो रही है। कल तुम आकर रुपए ले लेना महतो!
'चलो, मैं तुम्हें पहुँचा दूँ। ' ' नहीं-नहीं, तुम बैठो, मैं चली जाऊँगी। '
'जी तो चाहता है, तुम्हें कन्धे पर बैठाकर पहुँचाऊँ। '
नोखेराम की चौपाल गाँव के दूसरे सिरे पर थी, और बाहर-बाहर जाने का रास्ता साफ़ था। दोनों उसी रास्ते से चले। अब चारों ओर सन्नाटा था। नोहरी ने कहा -- तनिक समझा देते रावत को। क्यों सबसे लड़ाई किया करते हैं। जब इन्हीं लोगों के बीच में रहना है, तो ऐसे रहना चाहिए न कि चार आदमी अपने हो जायँ। और इनका हाल यह है कि सबसे लड़ाई, सबसे झगड़ा। जब तुम मुझे परदे में नहीं रख सकते, मुझे दूसरों की मजूरी करनी पड़ती है, तो यह कैसे निभ सकता है कि मैं न किसी से हँसूँ, न बोलूँ, न कोई मेरी ओर ताके, न हँसे। यह सब तो परदे में ही हो सकता है। पूछो, कोई मेरी ओर ताकता या घूरता है तो मैं क्या करूँ। उसकी आँखें तो नहीं फोड़ सकती। फिर मेल-मुहब्बत से आदमी के सौ काम निकलते हैं। जैसा समय देखो, वैसा व्यवहार करो। तुम्हारे घर हाथी झूमता था, तो अब वह तुम्हारे किस काम का। अब तो तुम तीन रुपए के मजूर हो। मेरे घर तो भैंस लगती थी, लेकिन अब तो मजूरिन हूँ; मगर उनकी समझ में कोई बात आती ही नहीं। कभी लड़कों के साथ रहने की सोचते हैं, कभी लखनऊ जाकर रहने की सोचते हैं। नाक में दम कर रखा है मेरे।
होरी ने ठकुरसुहाती की -- यह भोला की सरासर नादानी है। बूढ़े हुए, अब तो उन्हें समझ आनी चाहिए। मैं समझा दूँगा।
'तो सबेरे आ जाना, रुपए दे दूँगी। '
'कुछ लिखा पढ़ी ... '
'तुम मेरे रुपए हज़म न करोगे, मैं जानती हूँ। ' उसका घर आ गया। वह अन्दर चली गयी। होरी घर लौटा।

गोबर को शहर आने पर मालूम हुआ कि जिस अड्डे पर वह अपना खोंचा लेकर बैठता था, वहाँ एक दूसरा खोंचेवाला बैठने लगा है और गाहक अब गोबर को भूल गये हैं। वह घर भी अब उसे पिंजरे-सा लगता था। झुनिया उसमें अकेली बैठी रोया करती। लड़का दिन-भर आँगन में या द्वार पर खेलने का आदी था। यहाँ उसके खेलने को कोई जगह न थी। कहाँ जाय? द्वार पर मुश्किल से एक गज का रास्ता था। दुर्गन्ध उड़ा करती थी। गर्मी में कहीं बाहर लेटने-बैठने की जगह नहीं। लड़का माँ को एक क्षण के लिए न छोड़ता था। और जब कुछ खेलने को न हो, तो कुछ खाने और दूध पीने के सिवा वह और क्या करे? घर पर कभी धनिया खेलाती, कभी रूपा, कभी सोना, कभी होरी, कभी पुनिया। यहाँ अकेली झुनिया थी और उसे घर का सारा काम करना पड़ता था। और गोबर जवानी के नशे में मस्त था। उसकी अतृप्त लालसाएँ विषय-भोग के सागर में डूब जाना चाहती थीं। किसी काम में उसका मन न लगता। खोंचा लेकर जाता, तो घंटे-भर ही में लौट आता। मनोरंजन का कोई दूसरा सामान न था। पड़ोस के मजूर और इक्केवान रात-रात भर ताश और जुआ खेलते थे। पहले वह भी ख़ूब खेलता था; मगर अब उसके लिए केवल मनोरंजन था, झुनिया के साथ हासविलास। थोड़े ही दिनों में झुनिया इस जीवन से ऊब गयी। वह चाहती थी, कहीं एकान्त में जाकर बैठे, ख़ूब निश्चिन्त होकर लेटे-सोये; मगर वह एकान्त कहीं न मिलता। उसे अब गोबर पर ग़ुस्सा आता। उसने शहर के जीवन का कितना मोहक चित्र खींचा था, और यहाँ इस काल-कोठरी के सिवा और कुछ नहीं। बालक से भी उसे चिढ़ होती थी। कभी-कभी वह उसे मारकर बाहर निकाल देती और अन्दर से किवाड़ बन्द कर लेती। बालक रोते-रोते बेदम हो जाता। उस पर विपत्ति यह कि उसे दूसरा बच्चा पैदा होनेवाला था। कोई आगे न पीछे। अक्सर सिर में दर्द हुआ करता। खाने से अरुचि हो गयी थी। ऐसी तन्द्रा होती थी कि कोने में चुपचाप पड़ी रहे। कोई उससे न बोले-चाले; मगर यहाँ गोबर का निष्ठुर प्रेम स्वागत के लिए द्वार खटखटाता रहता था। स्तन में दूध नाम को नहीं; लेकिन लल्लू छाती पर सवार रहता था। देह के साथ उसका मन भी दुर्बल हो गया। वह जो संकल्प करती, उसे थोड़े-से आग्रह पर तोड़ देती। वह लेटी होती और लल्लू आकर ज़बरदस्ती उसकी छाती पर बैठ जाता और स्तन मुँह में लेकर चबाने लगता। वह अब दो साल का हो गया था। बड़े तेज़ दाँत निकल आये थे। मुँह में दूध न जाता, तो वह क्रोध में आकर स्तन में दाँत काट लेता; लेकिन झुनिया में अब इतनी शक्ति भी न थी कि उसे छाती पर से ढकेल दे। उसे हरदम मौत सामने खड़ी नज़र आती। पति और पुत्र किसी से भी उसे स्नेह न था। सभी अपने मतलब के यार हैं। बरसात के दिनों में जब लल्लू को दस्त आने लगे और उसने दूध पीना छोड़ दिया, तो झुनिया को सिर से एक विपत्ति टल जाने का अनुभव हुआ; लेकिन जब एक सप्ताह के बाद बालक मर गया, तो उसकी स्मृति पुत्र-स्नेह से सजीव होकर उसे रुलाने लगी। और जब गोबर बालक के मरने के एक ही सप्ताह बाद फिर आग्रह करने लगा, तो उसने क्रोध से जलकर कहा -- तुम कितने पशु हो! झुनिया को अब लल्लू की स्मृति लल्लू से भी कहीं प्रिय थी। लल्लू जब तक सामने था वह उससे जितना सुख पाती थी, उससे कहीं ज़्यादा कष्ट पाती थी। अब लल्लू उसके मन में आ बैठा था, शान्त, स्थिर, सुशील, सुहास। उसकी कल्पना में अब वेदनामय आनन्द था, जिसमें प्रत्यक्ष की काली छाया न थी। बाहरवाला लल्लू उसके भीतरवाले लल्लू का प्रतिबिम्ब मात्र था। प्रतिबिम्ब सामने न था जो असत्य था, अस्थिर था। सत्य रूप तो उसके भीतर था, उसकी आशाओं और शुभेच्छाओं से सजीव। दूध की जगह वह उसे अपना रक्त पिला-पिलाकर पाल रही थी। उसे अब वह बन्द कोठरी, और वह दुर्गन्धमयी वायु और वह दोनों जून धुएँ में जलना, इन बातों का मानों ज्ञान ही न रहा। वह स्मृति उसके भीतर बैठी हुई जैसे उसे शक्ति प्रदान करती रहती। जीते-जी जो उसके जीवन का भार था, मरकर उसके प्राणों में समा गया था। उसकी सारी ममता अन्दर जाकर बाहर से उदासीन हो गयी। गोबर देर में आता है या जल्द, रुचि से भोजन करता है या नहीं, प्रसन्न है या उदास, इसकी अब उसे बिलकुल चिन्ता न थी। गोबर क्या कमाता है और कैसे ख़र्च करता है इसकी भी उसे परवा न थी। उसका जीवन जो कुछ था, भीतर था, बाहर वह केवल निर्जीव यन्त्र थी। उसके शोक में भाग लेकर, उसके अन्तर्जीवन में पैठकर, गोबर उसके समीप जा सकता था, उसके जीवन का अंग बन सकता था; पर वह उसके बाह्य जीवन के सूखे तट पर आकर ही प्यासा लौट जाता था। एक दिन उसने रूखे स्वर में कहा -- तो लल्लू के नाम को कब तक रोये जायगी? चार-पाँच महीने तो हो गये। झुनिया ने ठंडी साँस लेकर कहा -- तुम मेरा दुःख नहीं समझ सकते। अपना काम देखो। मैं जैसी हूँ, वैसी पड़ी रहने दो।
'तेरे रोते रहने से लल्लू लौट आयेगा? '

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